पागल खाना पर पाठकीय प्रतिक्रिया याने समय का एक नपुंसक विद्रोह
यशवंत कोठारी
राजकमल ने ज्ञान चतुर्वेदी का पागलखाना छापा है.२७१ पन्नों का ५९५रु. का उपन्यास ओन लाइन ५९५ रूपये (५३६+३०+२९)का पड़ा. १४ दिनों में डिलीवरी मिली. मेरा अनुरोध है की पाठक राजकमल का मॉल भी अमेज़न आदि से ले सस्ता व् जल्दी मिलेगा.हिंदी के प्रकाशक इन लोगो से बहुत कुछ सीख सकते है.कवर पर शेर और उसकी परछाई देख कर ही डर लगने लगा.मगर हिम्मत कर के किताब खोल डाली .
नरक यात्रा से चले पागल खाना तक पहुचें .बीच के रास्तें में मरीचिका आई ,बारामासी आया और हम न मरब पर अंत में पागलखाना सबसे सुरक्षित जगह .यह रचना साहित्य है ,या एक उबाऊ फंतासी यही समझने की कोशिश में लगा रहा. इस व्यंग्य उपन्यास का विषय,भाषा शिल्प,कथ्य पर एक पाठक के रूप में अपनी प्रतिक्रिया दे रहा हूँ ,मैं कोई आलोचक-समीक्षक नहीं हूँ.गलती करता हूँ और सीखता हूँ.वर्तनी की अशुद्धियों के लिए अग्रिम क्षमा .
नीचे इस रचना पर एक टीप है जो ओन लाइन है-
यह वे भी मानते हैं कि बाज़ार के बिना जीवन सम्भव नहीं है। लेकिन बाज़ार कुछ भी हो, है तो सिर्फ एक व्यवस्था ही जिसे हम अपनी सुविधा के लिए खड़ा करते हैं। लेकिन वही बाज़ार अगर हमें अपनी सुविधा और सम्पन्नता के लिए इस्तेमाल करने लगे तो? आज यही हो रहा है। बाज़ार अब समाज के किनारे बसा ग्राहक की राह देखता एक सुविधा-तंत्र-भर नहीं है। वह समाज के समानान्तर से भी आगे जाकर अब उसकी सम्प्रभुता को चुनौती देने लगा है.
ज्ञान बड़े लेखक है उनसे हम सब बड़ी उम्मीदें रखते हैं,उन्होंने सनद रहे शीर्षक से भूमिका लिखी है जिसमे उन्होंने एकांत में कैद का जिक्र किया मगर यह परकाया प्रवेश आखिर में आत्म संतोष क्यों नहीं देता?इस रचना को रेसिपी बताते हुए इसके स्वाद की तारीफ भी की है मगर यह एक दूध की फीकी खीर बनकर रह गयी.कोढ़ में खाज वर्तनी की अशुद्धियाँ,टूटे अक्षर, पूरे के पूरे अक्षरों का गायब होना पाठक के साथ अन्याय है.व्यावसायिकता के हावी हो जाने के कारण यह उपन्यास जिसे व्यंग्य उपन्यास कहा गया है एक तथा कथित व्यंग्य उपन्यास बन कर रह गया है.अंग्रेजी शब्दों को कैसे लिखा गया है देखे-डाक्टरी ,फ्रेमों ,डिग्रियां,सायकेट्रिस्ट.क्लिनिक को स्त्रीलिंग माना है. वे खुद बहुत बड़े कार्डियो लोजिस्ट है.भाषा का सौन्दर्य गायब है.एक डॉक्टर दू सरे डॉक्टर को रेफर करता रहता है, इस रचना में भी यहीं सब है.अंजनी चौहान ने खूब मेहनत की मगर प्रभु जोशी ने भी काम किया होगा.
हाँ इस बार लोगों के लगातार विरोध के कारण गालियों की बोछार नहीं है शायद उसके लिए अगले उपन्यास तक इंतजार करना पड़ेगा जिसकी घोषणा लेखक ने अपनी भूमिका में कर दी है.लेकिन गटर का ढक्कन खोल कर मेन होल में पांव लटका कर बैठ जाना या कूद जाना तो किसी भी समस्या का हल नहीं हो सकता.शीशे पर प्रहार कर क्या दिखाना चाहता है लेखक,हिंसा सर्वत्र वर्जयेत .चिकित्सा के देवता का तस्वीर में बोलना हेरी पोटर का कारनामा तो हो सकता है मगर एक डॉक्टर का नहीं.
यह बाज़ार की ही मजबूरी है की यह सब हो रहा है.
इस उत्तर आधुनिक काल में यथार्थवाद की जरूरत ज्यादा है,पोस्ट सत्य का ऐसा समय चल रहा है की आदमी खुद एक फंतासी हो गया है.मंत्री स्वर्ग लोक में ,कामरेड गोडसे ,व् मरीचिका भी फंतासी के रूप में ही लिखे गए .फंतासी एक ऐसा कल्पना लोक बनाता है जो मायाजाल लगता है,जादूगरी लगता है और अंत में जाकर एक मकडजाल बना देता है.कभी इस तरह के लेखन का समय था मगर आज यह सब अजीब लगता है.
लेखक ने उपन्यास को कई खण्डों में बांटा है.जैसे-वह जो बगल में सुरंग खोद रहा है ,कोई भी ताला .... आदि .ये दोनों चैप्टर पढ़ कर ऐसा लगा जैसे ये अलग कहानियां है और इनको रेसिपी में प्रक्षेप द्रव्य के रूप में डाला गया है.एक अन्य चेप्टर –सर पर जूता पहनो तो पांव नंगे रह जाते हैं.इस में एक व्यक्ति के सपने सड़क में दफ़न हो जाते हैं डाक्टर इलाज़ करता है.एक अन्य हिस्से में पात्र कचरे के ढेर में छुप जाता हैं एक अजीब मानसिक वेदना है जो कही भी कभी भी फूट जाती है और हाथ कुछ नहीं आता है.खाली हाथ और खा ली दिमाग के सहारे इस रचना को पढने की हिम्मत जुटानी पड़ती है.पागल और बाज़ार के बीच चक्कर खाती इस रचना ने मुझे प्रभावित नहीं किया.आखिर इस खुबसूरत व् इश्वर की देन दुनिया को पागलखाना क्यों माना जाय . पश्चिम में भी केंसर वार्ड जैसे उपन्यास लिखे गए हैं ,लेकिन्वे प्रेम से पगे हैं.
भाषा,के बाद कथ्य ,रचना में कोई खास कहानी नही है और न ही उसे असाधारण तरीके से कहा गया है.पात्र आवारा गर्दी करते हैं,लेखक के हाथ से कथानक बार बार फिसल जाता है.शाब्दिक जाल में लेखक खुद उलझ गया है.
शिल्प की द्रष्टि से भी रचना अपना कोई खास प्रभाव नहीं छोडती क्योकि फंतासी बाज़ार नहीं है. आभासी फंतासी एक मकडजाल की तरह रचना को दबा देती है,रचना उभर कर नहीं आ पाति.
सपने ,समय ,स्म्रतियां आदि बार बार आते है म गर वे भी पागल खाना के पात्र बन जाते हैं.समय,स्मृतियाँ व सपने विद्रोह नपुंसक बन के रह जाते है.
चूँकि इसे व्यंग्य उपन्यास माना गया है,इसलिए इस में व्यंग्य के सौंदर्यशास्त्र ,काव्य शास्त्र व् व्याकरण के आधार पर भी उपन्यास कमज़ोर सिद्ध होता है.बिम्बों,प्रतीकों का भी कोई खास प्रयोग लेखक नहीं कर पाया,एक चैप्टर में चाँद ,चांदनी का है जिक्र है मगर ऐसी ही उनकी एक व्यंग्य रचना भी है.बाज़ार की इस फंतासी में पाठक के लिए कोई जगह नहीं है.सपाटबयानी का जीवंत उदाहरण है यह रचना ,जिसका विरोध लेखक अक्सर करते रहते हैं.
रचना में आम आदमी,किसान मजदूर ,महिला आदि सिरे से गायब है क्या दुनिया का पूरा बाज़ार केवल उच्च वर्ग का शगल है?.पागल खाना कोई अजूबा नहीं मगर बाज़ार की शक्तियों के सामने सब बोने हो जाते हैं.ये बाज़ार ही है जो सब को दबोच रहा है. उपन्यास एक बैचेनी पैदा करता है जो स्वयं में एक बीमारी है.बिना नाक वाले लोगों का समूह –यह एक जुमला सा लगता है क्योकि नाक पर पचासों विचार आये हैं विचारहीनता के इस युग में पाठक के हाथ निराशा ही लगती है.सपने ,समय और स्म्रतियां पाठक को चोट पहुचाते हैं.रचना में साहित्य संस्कृती,कला आदि गायब है.क्या कोई बाज़ार बिना महिला के पूरा हो सकता है?
सुरंग वाले बाबा की जय हो वे सबका कल्याण करेंगे ,नाचीज़ पाठक का भी.
उपन्यास से गुजरते हुए कही कहीं पञ्च हैं लेकिन वे पाठक को बांधे रखने में असमर्थ हैं.फिर भी कुछ उदाहरण -१-एक चमकीले अँधेरे से भरा हुआ पागल खाना
२-बाज़ार उन्हें चमकीली चप्पलें बेचता था.
३-भगवान बाज़ार के साथ था क्योकि वह पागल नहीं था.
४-हर दर्पण में वे ही घुस गए हैं.
५-इस सुरंग को कोई नंगी आँखों से नहीं देख सकता.
६-...हम कुछ ऐसा करें की आदमी सोचना बंद कर दे.
७-सर पर जूता पहनो तो पांव नंगे रह जाते हैं.
८-सपनों के टुकड़े थेले से निकल कर इधर उधर गिरने लगे.
९-क्रांति का आध्यात्मिक अंत
१०-समय ने विद्रोह कर दिया था.
यह रचना भी साहित्य अकादमी के गले पड सकती है क्योकि साहित्य का सबसे बड़ा बाज़ार वही है.प्रकाशक इस की पांच दस हज़ार कापी थोक खरीद में भिड़ा देंगा क्योकि नाम बड़ा है,अंदर कौन देखता है?
और अंत में लेखक को अगले उपन्यास के लिए शुभ कामनाएं.
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यशवंत कोठारी ८६,लक्ष्मी नगर ब्रह्मपुरी जयपुर -३०२००२
मो-९४१४४६१२०७